श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित जीवन प्रबंधन
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित जीवन प्रबंधन
वेदों का सारभूत श्रीमद्भगवद्गीता हमारे जीवन का मार्ग-निर्देशक है। यह एक व्यावहारिक मनोविज्ञान है जो हमें जीवन रूपी संग्राम में विजय प्राप्त करने हेतु वास्तविक ज्ञान का उपदेश देता है। आधुनिक प्रबंधन के सभी सिद्धांत अंतर्दृष्टि (vision), नेतृत्व ( leadership), प्रेरणा(motivation), कार्यकुशलता (work excellence) लक्ष्य की प्राप्ति, निर्णय लेने की क्षमता, योजना बनाने की निपुणता – इन सभी बातों का प्रतिपादन गीता में हुआ है। इन सभी विषयों को वह मूल से उठाती है। जब एक बार हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं में उत्कृष्टता आ जाती है तो जीवन की गुणवत्ता के स्तर में सुधार आ जाना स्वाभाविक है।
सर्वप्रथम तो गीता हमें यह सिखाती है कि उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कैसे करें? महाभारत युद्ध के समय अर्जुन की सहायता के लिए श्रीकृष्ण की पूरी सेना तैयार थी लेकिन अर्जुन ने श्री कृष्ण को ही अपना सहायक बनाया। श्रीकृष्ण बौद्धिक कुशलता के पर्याय है अतः जीवन में सफलता के लिए सर्वप्रथम बौद्धिक कुशलता आवश्यक है।
गीता हममें एक अंतर्दृष्टि विकसित करती है कि हम केवल अपने विषय में न सोचें बल्कि संकीर्णता से ऊपर उठकर पूरे समाज के लिए, देश के लिए और मानव मात्र के कल्याण के लिए सोचें और उसी के अनुसार कार्य करें।
गीता हमें आसक्ति रहित निष्काम कर्म का उपदेश देती है। हम फल की चिंता किए बिना कर्मशील बने। यदि हम परिश्रमपूर्वक कार्य करेंगे तो उसका परिणाम तो अच्छा होगा ही। इस प्रवृत्ति से हमारे दृष्टिकोण में सुधार आता है और हम अपने अहं का परित्याग कर कार्य में स्वयं को केंद्रित कर पाते हैं। निश्चित का वर्णन करते हैं, अनिश्चित का नहीं ।
जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियां हैं- आसुरी प्रवृत्ति और दैवी प्रवृत्ति । दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञान आदि आसुरी प्रवृत्तियां है जो हममें नकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करती हैं। इसके विपरीत निर्भयता, आत्मशुद्धि, ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म- संयम कर्तव्यपरायणता, तपस्या, सरलता, सत्य, क्रोध, त्याग, शांति, छिद्रान्वेषण में अरुचि करुणा, लोभराहित्य, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य और अमात्सर्य तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्त होना यह सभी दैवी प्रवृतियाँ हैं। इन सभी गुणों का आवरण कर मनुष्य में एक सकारात्मक दृष्टिकोण का उदय होता है जिसका परिणाम भी सकारात्मक ही होता है। इससे कार्यकुशलता विकसित होती है इसे ही गीता में योग की संज्ञा दी गई है- योगः कर्मसु कौशलम् । श्री कृष्ण कहते हैं-
योगस्थ कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।
इस प्रकार आसक्ति को त्याग कर स्थिर और संतुलित मस्तिष्क से कार्य करना ही योग है। आदि शंकराचार्य ने भी कहा है कि सफलता और असफलता के बिना शांत और स्थिर चित्त से काम करना ही कौशल है। इससे सफलता प्राप्त करने पर न तो हम उत्तेजित हो पाते हैं। और न ही असफल होने पर विषाद को प्राप्त कर पाते हैं। व्यर्थ के तनाव से भी बच पाते हैं। मोह वश व्यक्ति विभिन्न प्रकार से अपनी इंद्रियों को तृप्त कर सुखी बनना चाहता है लेकिन
सुख नहीं प्राप्त कर पाता। हमें अपने जीवन का प्रबंधन ऐसे करना होगा जिससे हम
व्यक्तिगत लाभ-हानि का विचार त्याग कर मानव कल्याण की बात सोच सकें
“गतासूनगतासूंश्च नानुशोचति पंडिताः ।
अष्टांग योग के मार्ग पर चलकर ही हममें अनासक्ति का उदय हो सकता है। अष्टांग योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इसमें शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक संतुलन के भी उपाय निर्दिष्ट हैं जिससे हमारा जीवन उत्कृष्ट हो सकता है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वपनावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।
तथा
दुःखेष्स्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगत स्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थित धीर्मुनिरुच्यते ।।
इंद्रियों को पूर्णतः वश में करते हुए अपनी चेतना को मानव कल्याण में स्थिर करने वाला मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है।
इस प्रकार अनासक्त, क्रोधरहित, आत्मसंयमी, कुशल, कर्मशील व्यक्ति ही जीवन-संग्राम में विजयी होता है। हमें यह सिखाने वाली श्रीमद्भगवद्गीता हमारी चेतना और विवेक को उच्च बौद्धिक स्तर तक पहुंचा कर हमें जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के योग्य बनाती है। इसके अनुसार लोक कल्याण ही जीवन का लक्ष्य है।
Author Name: Dr. Smita Kumari,
Department : Sanskrit,