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सर सैयद अहमद खान का जन्म 17 अक्टूबर 1817

सर सैयद अहमद खान का जन्म

17 अक्टूबर 1817

सैयद अहमद खान का जन्म मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली में एक समृद्ध और कुलीन परिवार में हुआ था, जिसका मुगल दरबार से घनिष्ठ संबंध था। उन्हें कुरान और विज्ञान में शिक्षित किया गया था। बाद के जीवन में उन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से कानून की मानद उपाधि भी प्राप्त की। वह व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले व्यक्ति थे और गणित, चिकित्सा, फारसी, अरबी, उर्दू आदि पर पुस्तकों का अध्ययन करते थे। उनके बड़े भाई ने उर्दू में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया था। यह दिल्ली में पहला था। अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने एक संपादक के रूप में अपने भाई की पत्रिका के साथ रोजगार लिया। उन्होंने अपने परिवार के पीढ़ियों से मुगल दरबार में कार्यरत होने के बावजूद मुगल दरबार से रोजगार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सर सैयद मुग़ल साम्राज्य की घटती शक्ति से वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में एक क्लर्क के रूप में काम किया। 1857 के विद्रोह के दौरान उन्होंने कई रिश्तेदारों को खो दिया। मुगल साम्राज्य की पराजय से वह अत्यधिक प्रभावित हुआ। उन्होंने ‘असबाब-ए-बघावत-ए-हिंद’ (1857 के भारतीय विद्रोह के कारण) नामक एक गहन पुस्तिका लिखी, जिसमें विद्रोह के प्रमुख कारणों के रूप में ब्रिटिश अज्ञानता और आक्रामक विस्तार नीतियों का हवाला दिया गया। सर सैयद ने मुसलमानों को उनकी स्थितियों को आगे बढ़ाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने अंग्रेजी सीखने की वकालत की। वे तत्कालीन समाज में प्रचलित अंधविश्वास और कुरीतियों के भी खिलाफ थे। उन्होंने अंतर-विश्वास समझ की भी वकालत की। वह ईसाई धर्म के विद्वान भी थे, और उन्होंने ‘कमेंट्री ऑन द होली बाइबल’ नामक एक पुस्तक भी लिखी थी। उनका मानना ​​था कि मुस्लिम समाज तभी आगे बढ़ सकता है जब कठोर रूढ़िवाद को त्याग दिया जाए और व्यावहारिकता को अपनाया जाए। 1869 में, उन्हें ब्रिटिश सरकार से ऑर्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया मिला।

उन्होंने शिक्षा के प्रसार के लिए कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (MAOC) था, जिसे उन्होंने 1875 में स्थापित किया था। यह बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया । 19 वीं सदी के अलीगढ़ आंदोलन में एमएओसी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो भारतीय मुसलमानों के बीच पुनर्जागरण का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था। इसका देश की राजनीति, धर्म और संस्कृति पर स्थायी प्रभाव पड़ा। एक अनपेक्षित प्रभाव द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन था जिसने अंततः पाकिस्तान बनाने का आह्वान किया। माना जाता है कि सर सैयद पहले भारतीय मुसलमान थे जिन्होंने इस्लाम के नए सिरे से उन्मुखीकरण की आवश्यकता को समझा। उन्होंने अलीगढ़ की साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की, जो इसे इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी पर आधारित थी। इस सोसायटी ने वार्षिक सम्मेलन आयोजित किए और अंग्रेजी और उर्दू में वैज्ञानिक सामग्री प्रकाशित और वितरित की। सर सैयद जानते थे कि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति रूढ़िवादी मुस्लिम शत्रुता सामाजिक-आर्थिक सुधार के रास्ते में आएगी। उन्होंने इस्लामी शास्त्रों की तर्कसंगत व्याख्या भी की। उस समय के कई रूढ़िवादी समूहों ने उन्हें ‘काफ़िर’ घोषित कर दिया था। वह सभी भारतीय मुसलमानों की भाषा के रूप में उर्दू के हिमायती थे। उनके कार्यों ने भाषा का प्रचार किया और सरकार को आधिकारिक रूप से उर्दू का उपयोग करने का प्रस्ताव भी दिया। उन्हें 1878 में वायसराय की विधान परिषद के लिए नामांकित किया गया था। उन्होंने सरकार और सिविल सेवाओं में भारतीयों के लिए प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में दादाभाई नौरोजी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी का समर्थन किया था। लेकिन वह भारतीय राष्ट्रवाद के उदय से सावधान थे क्योंकि उन्हें लगा कि सत्ता अकेले हिंदुओं के हाथों में चली जाएगी। उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजों के प्रति वफादारी रखने की वकालत की। उनके अपने शब्दों में, “हम पुस्तक के लोगों के बजाय हिंदुओं के विषय नहीं बनना चाहते हैं।” उनके अनुसार, भारतीय मुसलमानों की स्थिति में सुधार के लिए आधुनिक शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण मार्ग था। उन्होंने यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अध्ययन का आह्वान किया। उन्होंने बताया कि कुरान और प्राकृतिक विज्ञान के बीच कोई मौलिक विरोधाभास नहीं है। उन्होंने मुसलमानों को वैज्ञानिक रूप से शिक्षित करने के लिए 1875 में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की। उन्हें टू-नेशन थ्योरी के संस्थापकों में से एक माना जाता है जो कहता है कि हिंदू और मुसलमान एक राष्ट्र नहीं हो सकते। 1888 में सर सैयद को अंग्रेजों ने नाइट की उपाधि दी थी। 27 मार्च 1898 को अलीगढ़ में 80 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

मुस्लिम समाज के अग्रणी नेताओं में एक तथा मुस्लिम समाज सुधारक सर सैय्यद अहमद खाँ प्रारंभ में एक राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे। किन्तु कालान्तर में वे साम्प्रदायिक होते गए। उनके सम्प्रदायवादी होने के पीछे मूल कारण उस समय की तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था में मुसलमानों की दयनीय स्थिति तथा पिछड़ापन था। अलीगढ़ आंदोलन के अग्रणी नेता कहे जाने वाले सर सैय्यद अहमद खाँ के विचारों को निम्नानुसार समझा जा सकता हैं–

सर सैयद अहमद खान के राजनीतिक विचार

  1. उदार राष्ट्रवादी सर सैयद अहमद खाँ प्रारंभ में राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक रहे। जस्टिस रानाडे, दादाभाई नौरोजी तथा गोपालकृष्ण गोखले की तरह सर सैयद अहमद का दृष्टिकोण भी एक उदार राष्ट्रवादी का रहा। विधानमंडल में जनता के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के विषय में उनके भी वैसे ही विचार थे, जैसे कि भारतीय उदारवाद के सूत्रधारों के थे। ब्रिटिश भारतीय संघ की स्थापना कराने में सर सैय्यद अहमद ने जो भूमिका अदा की उसे देखकर और अलीगढ़ स्कूल के लिए धन एकत्रित करने के लिए अपने दौरे के दरमियान उन्होंने जो भाषण दिया, उसको सुनकर बहुत-से लोग यह आशा करने लगे कि उनके व्यक्तित्व में उदीयमान भारतीय राष्ट्रवाद को एक बुद्धिमान, अनुभवी तथा प्रतिभाशाली नेता मिलेगा। हालाँकि बाद में उनके राष्ट्रवादी होने का भ्रम टूट गया।
  2. हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन प्रारंभ में अपने पैर जमने तक जैसा उचित था सर सैयद ने भी बहुत बुद्धिमानी पूर्वक उदारवादी दृष्टिकोण ही प्रदर्शित किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कही। 4 जनवरी 1884 को जालंधर में हिन्दू-मुस्लिम एकता के संबंध में सर सैयद ने ये विचार प्रकट किये,” शताब्दियां बीत गई। ईश्वर ने चाहा था कि हिन्दू तथा मुसलमान इस देश की जलवायु में, इसके उत्पादन में समान भागीदार बनें और इसके लिए एक साथ मरें दो सगे भाई की तरह रहें। वह इस देश के चेहरे की दो सुंदर आंखे हैं। मैं चाहता हूँ कि धर्म तथा समुदाय की विभिन्नताओं को भूलकर सभी को एक साथ संगठित हो जाना चाहिए। हमारे धर्म अलग-अलग हो सकते हैं, किन्तु हमारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण अलग नहीं हो सकता।” इससे स्पष्ट है कि सर सैयद राष्ट्रीय विचारधारा से अनुप्रेरित थे। उनकी यह अभिलाषा थी कि दोनों जातियों का एक दृढ़ संगठन बन जाए जिससे राष्ट्र स्वयं उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता जाए।
  3. मुस्लिम सुधारवादी सर सैय्यद अहमद के कार्यों एवं विचारों का गहन अध्ययन करें तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती हैं कि वे मूलतः मुस्लिम सुधारवादी थे। वे पर्दा-प्रथा, बहुविवाह एवं दासप्रथा के विरोधी थे। उन्होंने अंग्रेजों एवं मुसलमानों का जो गठबंधन चाहा, वह वास्तव में मुस्लिम समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से ही था। वे बहुत-सी उन सामाजिक बुराइयों को दूर करना चाहते थे जो मुस्लिम समाज में आ गई थीं। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि सुधार बड़ी सावधानी के साथ तथा शांतिपूर्ण ढंग से और इस्लाम के आधारभूत सिद्धांतों पर कोई आघात किये बिना किये जाना चाहिए। सामाजिक सुधारों का प्रचार करने के लिए उन्होंने तहजीबुल अखलाक नामक एक मासिक पत्रिका निकालना भी आरंभ किया। उनके द्वारा चलाया गया अलीगढ़ आंदोलन मूलतः मुस्लिम समाज में सुधार लाने का ही एक जरिया बना।
  4. सांप्रदायिक विचारधारा 1887 के बाद सर सैयद इतने पूर्णतः बदल गये कि कोई विश्वास नही कर सकता कि वे पहले हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन करते रहे होंगे। कुछ विद्वानों का यह मत हैं कि उनके कॉलेज के प्रिंसिपल थियोडोर बैक ने सर सैयद के विचारों को प्रभावित किया। तब से वे कांग्रेस का विरोध करने लगे तथा कहने लगे कि हिन्दू मुसलमानों दो अलग-अलग जातियाँ हैं जो कभी एक नहीं हो सकती। हैक्टर बोलिमथ ने लिखा है कि,” सर सैयद उन सब बातों के जनक थे जो कि अंततः मोहम्मद अली जिन्ना के मानस में उत्पन्न हुई।” परन्तु डाॅ. शान मोहम्मद हैक्टर बोलिमथ के इस मत को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस विचारधारा का खंडन इन शब्दों में किया हैं,” यह सही हैं कि वह हिन्दू बहुसंख्यक समाज के प्रभुत्व से भयभीत थे तथा मुस्लिम समाज के पृथक राजनीतिक अस्तित्व की कल्पना करते थे, परन्तु पाकिस्तान का स्वप्न सैयद अहमद के विचारों में नहीं जिन्ना के विचारों में मुखरित हुआ।” स्पष्ट है कि शान मोहम्मद हैक्टर बोलिमथ की भाषा को समझ नहीं पाए। हैक्टर बोलिमथ ने पाकिस्तान का तो कहीं नाम भी नहीं लिया हैं और जो उन्होंने कहा हैं शान मोहम्मद उसे स्वीकार करते ही हैं।
  5. लोकप्रिय सरकार के प्रति अनास्था सर सैयद अहमद खां की राजनीति परिस्थितियों पर आधारित अवसरवादी नीति थी। वे मूलतः एक राजनीतिक चिंतक थे ही नहीं। वे केवल अंग्रेज के पढ़ाए हुए तोते के समान थे। उनके हर मत में अंग्रेजों के कथन की प्रतिध्वनि ही सुनाई पड़ती थी। सर सैयद ने आई.सी.एस. परीक्षा का भारत में करने का तथा धारा सभाओं की सदस्यता को बढ़ाने की मांग का विरोध किया। वे संवैधानिक साधनों में अपना विश्वास भी बताते थे और भारत के लिए प्रतिनिधि शासन को अनुपयुक्त भी बताते थे। सर सैयद अहमद इस बात को भली-भाँति जानते होंगे कि वे मतभेद को सदैव जागागें रखेंगे फिर भी कहते थे कि जब तक भारत में विभिन्न जातियों का मतभेद रहता हैं, तब तक प्रतिनिधि शासन का अर्थ होगा। बहुमत का अल्प मतों पर अत्याचार इससे जातीय तथा सांप्रदायिक विभेद और तीव्र हो जायेगा। इससे लोकप्रिय सरकार के प्रति सर सैयद की अनास्था स्पष्ट हैं।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षस्वरूप कहा जा सकता है कि सर सैय्यद अहमद खाँ, जो प्रारंभ में एक राष्ट्रवादी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे, बाद में साम्प्रदायिक होते गए तथा उन्होंने खुलकर मुस्लिम हित की वकालत की। हालाॅकि इसके पीछे मूल कारण मुस्लिम समाज का पिछड़ा होना तथा उनका सामाजिक प्रगति व उन्नति से दूर होना था, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चाहे मुस्लिम समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से ही सही, उन्होंने जिस साम्प्रदायिक भावना का समर्थन किये तथा मुस्लिमों को हिन्दुओं से पृथक करने का प्रयास किया वही आगे जाकर फल-फूलकर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के रूप में भारत विभाजन का कारण बनी।

Name: Ranju Devi

Email-Id: ranju01devi@gmail.com