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दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का प्रश्न

दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का प्रश्न

हिंदी साहित्येतिहास में अस्मितावादी विमर्श एक आधुनिक परिघटना है| यद्यपि भक्तिकालीन निर्गुण संतों के द्वारा भी अपनी पीड़ा को वाणी देने का प्रयास साहित्य के इतिहास में दर्ज है परन्तु आधुनिक साहित्य के अस्मितावादी दौर में जब इस तरह का साहित्य ठोस विचारधारात्मक आधार के साथ विकसित होता है तब दलित-साहित्य अपनी पूरी ऊर्जा के साथ सामने आता है|

     जब दलित-साहित्य तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य में अपना हस्तक्षेप दर्ज करने की कोशिश करता है तब दलित-साहित्य पर कई तरह के सवाल उठाये जाते हैं जिनमे से कुछ साहित्य के सौंदर्यशास्त्र से सम्बंधित हैं| दलित-साहित्य समानता और बंधुत्व की अवधारणा के साथ सामने आया था जिनमे अपनी संघर्ष को वाणी देने का प्रयास प्रमुख था| इसीलिए, इस तरह के साहित्य की स्वाभाविक मुठभेड़ परम्परागत सौंदर्यशास्त्र से हुई| हमारा परंपरागत सौंदर्यशास्त्र जिसकी निर्मिति संस्कृत और पाश्चात्य-काव्यशास्त्र के आधार पर हुई अपने स्वभाव में मूलतः अभिजात्य है| मार्क्सवादी-सौंदर्यशास्त्र ने अवश्य वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा के अधिनायकत्व आदि की बातें की, परन्तु यह भी एक तथ्य है कि इस ने लम्बे समय तक जाति और अस्मिता के प्रश्नों को संबोधित नहीं किया|

     दलित-साहित्य पर जो आरोप लगे, यथा, यह कलाविहीन है, सुरुचिपूर्ण नहीं है, समन्वय की अवधारणा को लेकर नहीं चलता, इन सभी आरोपों का मूल हमारे परंपरागत सौन्दर्य-बोध में है| वर्तमान समय में कई आलोचकों ने दलित-साहित्य के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की वकालत की है| यदि हम दलित-साहित्य को इस नए सौंदर्यशास्त्र के सहारे समझने कि कोशिश करें तो उस पीड़ा से बड़ी आसानी से जुड़ सकते हैं जिसकी अभिव्यक्ति इस तरह के साहित्य में होती रही है| आवश्यकता है आज एक नए सौंदर्यशास्त्र को विकसित करने की जिसमे परंपरागत तत्त्व के साथ-साथ नए सौंदर्यशास्त्र का भी सम्मलेन हो, तभी हम सभी तरह के साहित्य का मूल्यांकन सही प्रतिमानों के साथ कर पाएँगे और हमारी साहित्य-दृष्टि भी और व्यापक हो पाएगी|

    डॉ. कुमार धनंजय

                                                  सहायक प्राध्यापक

                                   हिंदी विभाग, पटना वीमेंस कॉलेज

                                             पटना विश्वविद्यालय